भाजपाः घटता दायरा
क्या शाह 'माटी के शेर' साबित हो रहे हैं.....?
देश पर राज कर रही भारतीय जनता पार्टी इन दिनों राजनीति के अस्पताल के 'गहन चिकित्सा इकाई' (आईसीयू) में पड़ी है और उसके अपने बड़े-बड़े नामी सर्जन क्रोधित होने के अलावा कुछ नहीं कर पा रहे है। इस मरीज की खोज-खबर लेने वालों की संख्या भी दिनों-दिन कम होती जा रही है। ज्यादा नहीं महज एक साल पहले यह पूर्णतः तन्दूरूस्त होकर देश के अधिकांश राज्यों में इठलाती घूमती नजर आती थी, पर अब वह धीरे-धीरे बहुत 'कृशकाय' होती जा रही है और पता नही उसे कौन से गंभीर रोग ने घेर लिया, जिसके कारण न सिर्फ उसकी स्थिति धीरे-धीरे गंभीर होती जा रही है, बल्कि उसकी खोज-खबर लेने वालों की संख्या भी बहुत कम होती जा रही है। इसके अपने महान चिकित्सक भी इसका रोग नहीं खोज पा रहे हैं, जबकि सबसे बड़े सर्जन (प्रधानमंत्री) इसकी सेहत सुधारने के लिए काफी अच्छी दवाईयों (देशहित की घोषणाएं) की खुराकें दे रहे हैं, पर इस पर इन महंगी खुराकों का कोई असर ही नहीं हो रहा है।
एक गंभीर मरीज के माध्यम से देश में सत्तारूढ़ पार्टी के लिए कही गई इस बात का हर शब्द अपने आपमें वास्तविकता लिए हुए है। प्रधानमंत्री मोदी ने अपने दूसरे शासनकाल के महज छः महीनों में तीन बड़े फैसले कथित राष्ट्रहित के लिए, सबसे पहले तीन तलाक कुप्रथा पर कानूनी रोक, इसके बाद जम्मू-कश्मीर से धारा-370 की समाप्ति और इसके बाद अब नागरिक संशोधन कानून, इस बीच माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने अयोध्या राम मंदिर निर्माण का फैसला भी हिन्दूओं के पक्ष में सुनाकर भाजपा के चुनावी घोषणा-पत्र के एक महत्वपूर्ण बिन्दु को मूर्तरूप प्रदान कर दिया। इस तरह कुल मिलाकर मोदी सरकार के दूसरे कार्यकाल के अब तक के छः महीनें सरकार, देश व सत्तारूढ़ दल तीनों के लिए काफी सार्थक रहे, किंतु इन सबके बावजूद देश के राज्यों में भाजपा के प्रति कम हो रहा समर्थन पार्टी व उसके ''आकाओं के लिए चिंताजनक होना स्वाभाविक है'', अरे.... जो दल ज्यादा नहीं सिर्फ एक साल पहले देश के इकहत्तर फीसदी भू-भाग पर राज करता था, वह घटकर एक साल में 34 फीसदी पर आ गया तो यह भाजपा व उसके समर्थकों के लिए चिंता का विषय तो है ही? और वह भी तब जब प्रतिपक्षी दलों ने कोई आकर्षक कारनामा नही किया हो, क्योंकि प्रतिपक्ष तो कर्नाटक से लेकर झारखण्ड तक एकजुट होने का दिखावा मात्र कर रहे है, यदि ये वास्तव में एकजुट हो गए तो फिर भाजपा का क्या होगा?
इस तरह कुल मिलाकर इतनी लम्बी बहस का सार यही निकलता है कि देश में सत्तारूढ़ दल भारतीय जनता पार्टी की दिनों-दिन कमजोर होती जा रही चिंताजनक स्थिति के लिए कोई और नहीं स्वयं भाजपा ही जिम्मेदार है और अब उसे अपनी बीमारी स्वयं ही खोजकर उसका वाजिब इलाज कर उसे दूर करना होगा। यद्यपि इस मामले में देश में इन दिनों कई तरह के मत-मतांतर चल रहे है, कोई कह रहा है मोदी-शाह का दंभ पार्टी को कमजोर कर रहा है, किसी का मत है कि सम्प्रदाय विशेष को लेकर अब तक लिए गए फैसलों का यह असर है, कोई मोदी का करिश्मा या जादू खत्म होने का तर्क दे रहा है, मतलब ये कि इस गंभीर मसले पर जिसे बोलना चाहिए, उसे छोड़कर बाकी सब बोल रहे है। कोई पार्टी के कथित चाणक्य अमित शाह को 'माटी का शेर' कह रहा है तो कोई महत्वपूर्ण मसलों पर मौन धारण करने वाले मोदी जी को 'मौनी बाबा' कह रहा है, मतलब यह कि पार्टी के दिग्गजों व अनुषांगिक हिन्दू संगठनों के 'महापुरूषों' को छोड़ हर कोई अपनी- अपनी ढपली पर अपना राग अलाप रहा है, अब ऐसे में देश के आम जागरूक नागरिकों व बुद्धिजीवियों का यह भी सवाल है कि अमित शाह वास्तव में 'राजनीति के चाणक्य' है भी या उनके समर्थक मीडिया ने उन्हें यह पदवी प्रदान कर दी, क्योंकि यदि वे वास्तव में चाणक्य होते तो क्या आज उनकी अपनी पार्टी की ऐसी गंभीर स्थिति होती? जिस दल ने पिछले साल तक बड़े-बड़े राज्यों की सत्ता पर कब्जा किया, वह कब्जा अब उसके हाथों से काफूर क्यों होता जा रहा है? मध्यप्रदेश, राजस्थान, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़ और अब झारखण्ड में किसका जादू मोदी के जादू पर भारी पड़ गया? यदि यही क्रम जारी रहा तो निकट भविष्य में पश्चिम बंगाल, बिहार व दिल्ली में क्या होगा? जहां विधानसभा चुनाव होने वाले है, केन्द्रीय राजधानी दिल्ली में तो नए साल के प्रारंभ में ही चुनाव होना है, ऐसे में क्या कोई ऐसा करिश्मा पैदा किया जा सकता है, जो भाजपा की सेहत को चमत्कारी बना दें? आज यही मुद्दा सर्वाधिक विचारणीय है। भाजपा को ऐसे साहिल की तलाश है जो उसकी नाव को इस तूफान से बचा लें।